गोवा, जिसे आज समुद्र, सूरज और सुहाने माहौल के लिए जाना जाता है, उसका इतिहास उतना ही रहस्यमय, परतदार और गहन है जितनी गहरी उसकी धरती के भीतर सोई कहानियाँ। दक्षिण गोवा के शांत, हरियाली से भरे कांसौलिम गाँव में स्थित एक चर्च “थ्री किंग्स चर्च” (Three Kings Church) अपने भीतर ऐसी कथा समेटे है जो धर्म, राजनीति, सत्ता, उपनिवेशवाद, सांस्कृतिक संघर्ष और स्थानीय पौराणिकताओं का दुर्लभ मिश्रण प्रस्तुत करती हैं।
स्थानीय लोग इसे ‘हॉन्टेड चर्च’, ‘श्री किंग चर्च’ या ‘शापित चर्च’ के नाम से जानते हैं। लेकिन इस कहानी की जड़ें सिर्फ आत्माओं या श्राप तक सीमित नहीं हैं, यह कहानी उस खामोश मंदिर की भी है जिसके टूटे स्तंभ आज भी चर्च की सीढ़ियों के पास अपनी खोई हुई पहचान की गवाही देते हुए दिखाई देता हैं।
गोवा अपने छोटे भूभाग के बावजूद भारतीय उपमहाद्वीप का वह अनमोल क्षेत्र रहा है जहाँ कई सभ्यताएँ आकर टकराईं, घुलीं, बिखरीं और अपने निशान छोड़ गईं।
इतिहासकारों के अनुसार, कदंब वंश (11वीं–14वीं सदी) ने गोवा में मंदिर स्थापत्य की अद्भुत परंपरा विकसित की। बहमनी सल्तनत और उसके बाद विजयनगर साम्राज्य ने भी गोवा पर शासन किया। विजयनगरकाल में कई मंदिरों का विस्तार हुआ और हिन्दू सांस्कृतिक जीवन अत्यंत समृद्ध माना जाता है। लेकिन वर्ष 1498 में वास्को-डी-गामा के भारत आगमन के बाद भारत के पश्चिमी समुद्री क्षेत्रों में पुर्तगालियों का प्रभाव तेजी से बढ़ने लगा और फिर शुरू हुआ वह अध्याय, जिसने गोवा की धार्मिक-सांस्कृतिक संरचना को हमेशा के लिए बदल दिया।
गोवा में पुर्तगालियों का शासन लगभग 450 वर्षों तक रहा। इस दौरान कई हिन्दू मंदिरों को तोड़ा गया, मूर्तियाँ हटाई गईं या नष्ट की गईं और उनके स्थान पर चर्चों का निर्माण किया गया। इसी ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है “थ्री किंग्स चर्च”, जो 1599 ईस्वी में बनाया गया था। यह चर्च आज एक धार्मिक संरचना से अधिक एक सांस्कृतिक रहस्यस्थल है, जिसकी जड़ें सीधे उस टूटे मंदिर से जुड़ती हैं जहाँ कभी स्थानीय लोग पूजा-अर्चना करते थे।
गोवा के इतिहासकार अमरीन शेख कहती हैं कि “हमारे दादा-दादी बताते थे कि इस जगह पर एक बड़ा मंदिर हुआ करता था। चर्च की सीढ़ियों के पास टूटे स्तंभ आज भी दिखाई देता है। ये किसी प्राचीन मंदिर की स्पष्ट निशानी है।” इन टूटे स्तंभों की उम्र लगभग 525 वर्ष मानी जाती है। यानि वे चर्च से कई पीढ़ियाँ पुराने हैं। लेकिन प्रश्न उठता है यह मंदिर किस देवी-देवता का था? इसका उत्तर आज भी इतिहास की मोटी धूल में छिपा हुआ है।
स्थानीय परंपराओं और लोककथाओं के अनुसार, यहाँ देवी का मंदिर था। कुछ लोग इसे स्थानीय ग्राम-देवी का स्थल मानते हैं। कुछ का कहना है कि यह दुर्गा रूपी शक्ति मंदिर था। लेकिन कोई भी ठोस प्रमाण अब तक नहीं मिला है। इसके दो कारण पहला मंदिरों के साथ जुड़े शिलालेख, धार्मिक चिह्न, पट्टिकाएँ, अधिकांश नष्ट कर दिए गए थे। दूसरा जो स्तंभ बचे हैं वो मूल गर्भगृह या देव प्रतिमा का संकेत नहीं देता है, वे सिर्फ स्थापत्य शैली की पहचान कराता है। फिर भी, स्तंभों की नक्काशी, पत्थर की बनावट और डिजाइन यह बताता है कि यह मंदिर विजयनगरकालीन शैली का था।
यह चर्च सिर्फ इतिहासिक रूप से नहीं, बल्कि स्थानीय लोककथाओं में भी बेहद प्रसिद्ध है। स्थानीय लोग बताते हैं कि मंदिर को तोड़ने का श्राप इस चर्च पर लगा है। इसलिए इसे ‘हॉन्टेड चर्च’ कहा जाता है। कई लोग दावा करते हैं कि यहाँ रात में अजीब आवाजें सुनाई देती हैं। कुछ का कहना है कि तीन राजाओं की आत्माएँ यहाँ घूमती हैं।
“थ्री किंग्स चर्च” का नाम भी एक कथा से जुड़ा है कहा जाता है कि तीन स्थानीय राजा आपसी संघर्ष में यहां मारे गए थे, और उनकी आत्माएँ आज भी इस चर्च को अपना धाम मानती हैं। लेकिन धार्मिक इतिहासकार मानते हैं कि यह कथा भी शायद चर्च के निर्माण के बाद पैदा हुई परंपरा का हिस्सा है, क्योंकि असली घटनाओं का कोई लिखित प्रमाण नहीं मिलता है। फिर भी, यह सच है कि स्थानीय समुदाय इस चर्च को आदर और भय दोनों से देखता है।
इस चर्च का भूगोल भी बेहद रोचक है। यह मांडवी नदी के किनारे स्थित है। स्थानीय लोग इसे ‘गोवा की गंगा’ कहते हैं। इस नदी के आसपास का इलाका घना, शांत, प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर और आध्यात्मिक रूप से अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
इतिहासकार अमरीन शेख के अनुसार “इस नदी ने सदियों से यहाँ की संस्कृति को पोषित किया है। मंदिर भी इसी नदी के निकट था। यह नदी सिर्फ पानी नहीं है, बल्कि गोवा की संस्कृति की धड़कन है।”
चर्च की सीढ़ियों के पास मौजूद टूटे हुए स्तंभ और पत्थर आज भी स्पष्ट रूप से बतलाता है कि यहाँ एक बड़ी, महत्त्वपूर्ण और स्थापित मंदिर संरचना थी। वह मंदिर इस गाँव का सांस्कृतिक केंद्र रहा होगा। स्तंभों का निर्माण लाल और भूरे बेसाल्ट पत्थर से किया गया था। उन पर की गई कारीगरी स्थानीय कदंब एव विजयनगर स्थापत्य शैली का मिश्रण प्रतीत होती है। स्तंभों का महत्व है, यह सिर्फ वास्तुशिल्प अवशेष नहीं है, बल्कि यह स्मृति है, पहचान है और सांस्कृतिक इतिहास का वह हिस्सा है जो मिटाया नहीं जा सका।
“थ्री किंग्स चर्च” का निर्माण वर्ष 1599 में हुआ। इस काल में पुर्तगाली सरकार, कैथोलिक मिशनरी और स्थानीय प्रशासन मिलकर ‘कन्वर्जन’ की व्यापक नीति चला रहे थे। मंदिरों को नष्ट कर वहाँ चर्च बनाना एक आम प्रथा थी। यह चर्च भी उसी प्रक्रिया का परिणाम है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि यह चर्च बाद में अपने कथाओं, अनुभवों और रहस्यमयता के कारण एक आध्यात्मिक पर्यटक स्थल बन गया। हालाँकि स्थानीय हिन्दू समुदाय के लिए यह स्थल अभी भी खोए हुए इतिहास का प्रतीक है।
यह चर्च आज भी गोवा का वह स्थान है जहाँ इतिहास और रहस्य दोनों साथ-साथ चलता है। कहा जाता है कि तीन राजाओं की आत्माएँ रात में चर्च परिसर में घूमता है। मंदिर ध्वंस और आस्था के विघटन को श्राप का कारण माना जाता है। स्थानीय लोग रात में चर्च जाने की हिम्मत नहीं करते हैं। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि चर्च समुद्रतटीय हवाओं के मार्ग में है, खुला इलाका है, इसलिए रहस्यमय ध्वनि-तरंगें उत्पन्न होती हैं। लेकिन लोकमान्यताएँ वैज्ञानिक तर्कों को स्वीकार करने से ज्यादा अपनी भावनाओं पर विश्वास करती हैं और यही इस जगह को विशिष्ट बनाता है।
यह स्थल सिर्फ एक चर्च नहीं है, यह उन सदियों की कहानी है जब गोवा की पहचान छीन ली गई थी। मंदिरों को तोड़ा गया, हिन्दू समुदाय को सख्त नियमों में बाँधा गया, पुर्तगाली इनक्विजिशन लागू किया गया और धार्मिक स्वतंत्रता सीमित कर दी गई। “थ्री किंग्स चर्च” उसी दौर की एक निशानी है। जिसे स्थानीय लोग सम्मान भी देते हैं और दुख भी महसूस करते हैं। यह स्थान सांस्कृतिक संघर्ष का जीवित प्रमाण है।
आज यह स्थल इतिहासकारों, पुरातत्वविदों, शोधकर्ताओं, यात्रियों और गोवा की संस्कृति में दिलचस्पी रखने वालों के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र बन चुका है। पर्यटक यहाँ आते हैं चर्च की ऊँचाई से समुद्र और घने जंगलों का दृश्य देखने, सूर्योदय और सूर्यास्त का आनंद लेने और उस रहस्य को महसूस करने, जिसने इस स्थान को ‘हॉन्टेड’ बना दिया है। पुरातत्वविद इसकी संरचना और स्तंभों का अध्ययन करते रहते हैं। स्थानीय समुदाय इसे श्राप और विरासत, दोनों की तरह देखता है।
इतिहासकारों का मानना है कि मंदिर के अवशेषों को संरक्षित किया जाना चाहिए। उनके लिए पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा विशेष अध्ययन होना चाहिए। इस स्थल को ‘द्वैध विरासत’ घोषित किया जाना चाहिए, जहाँ मंदिर और चर्च दोनों का इतिहास शामिल हो। यह सांस्कृतिक सद्भाव का उत्कृष्ट उदाहरण बन सकता है जहाँ दो विरोधी कहानियाँ मिलकर एक विरासत बनाती हैं।
कुछ लोग मानते हैं कि भूमि भी स्मृतियों को संजोती है। जहाँ कभी प्रतिदिन आरती होती थी, जहाँ घंटे और शंख गूँजते थे, जहाँ भक्त आते-जाते थे वह भूमि अचानक चर्च बन जाने पर अपनी पहचान खोने से दुखी हो गई। यह ‘श्राप’ उसी मानसिक-आध्यात्मिक पीड़ा का प्रतीक माना जाता है। यह मान्यता सत्य हो या न हो, यह एक गहरी सांस्कृतिक भावनात्मक सच्चाई को अवश्य दर्शाता है।
गोवा के इतिहास में एक तथ्य अद्भुत है, यहाँ मंदिर नष्ट हुए, धर्म बदला गया, परन्तु हिन्दू संस्कृति खत्म नहीं हुई। आज भी गोवा के मूल गाँवों में मंदिरों की संख्या चर्चों से कहीं अधिक है। संस्कृति, भाषा और परंपराएँ अपने मूल रूप में जीवित हैं। “थ्री किंग्स चर्च” जैसे स्थल इतिहास की उन परतों को उजागर करता है जहाँ धर्म संघर्ष में था लेकिन संस्कृति ने रास्ता बना लिया।
यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। क्या यह श्रापित है? या क्या यह सिर्फ इतिहास की वेदना है? जो लोग यहाँ जाते हैं वे दो बातें साथ लेकर लौटते हैं, एक अद्भुत शांति और एक गहन रहस्य की अनुभूति। संभवतः यह स्थल शापित नहीं, बल्कि वह इतिहास का ‘बोझ’ उठाए खड़ा है। मंदिर से चर्च तक की यात्रा एक सांस्कृतिक परिवर्तन नहीं, बल्कि एक वेदनापूर्ण संक्रमण था।
“थ्री किंग्स चर्च” सिर्फ एक स्थापत्य नहीं है, यह कई युगों, कई संघर्षों, कई भावनाओं और कई स्मृतियों का संगम है। यह सिखाता है कि इतिहास हमेशा विजेताओं द्वारा लिखा जाता है, लेकिन विरासत हमेशा पराजितों के अवशेषों में छिपी रहती है।
